नवोदय की शैतानियां और उनकी यादें
दीवार फांदकर भागने का वो जज्बा,
आज भी दिल में चुभता है हर सपना।
वो नदी की ठंडी लहरों में डूब जाना,
और वापस आकर खुद को छुपा लेना।
अमरूद के पेड़ पर चढ़कर मस्ती करना,
फिर पकड़े जाने पर मासूम बन जाना।
फूलों को तोड़कर छुप-छुपकर लाना,
और प्रार्थना में मासूमियत से मुस्काना।
रात की खामोशी में चुपके से भागना,
दूर कहीं फिल्म देखकर लौट आना।
चमकती स्क्रीन, और वो चोरी का रोमांच,
पर डर के साए में लौटने का था एहसास।
हर शरारत के पीछे एक मासूम ख्वाब,
आज वो यादें बनकर आती हैं नायाब।
नहीं थी कोई मंशा बुरी या गलत,
बस जिंदगी को जीने का अपना ही तरीका।
आज जब सोचता हूं, वो पल लगते खास,
हर दीवार फांदने में छुपा था जो उल्लास।
पर कहीं दिल में टीस भी उठती है,
कि शायद वो मासूमियत अब खो गई है।
नवोदय की मिट्टी, वो यारों के संग,
हर शैतानी में छुपा था दिल का रंग।
अब न वो दीवारें हैं, न वो बहाना,
बस यादों के सहारे जी रहा हूं सारा जमाना।
ओ नवोदय, तेरी गलियों का करूं सिंगार,
तेरी हर शरारत को दूं दिल से प्यार।
तेरी यादों में खोया, मैं तन्हा आज,
पर वो दिन, वो शैतानियां, हैं मेरे पास।
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