नवोदय का अधूरा प्यार
नवोदय के दिन, वो सपनों का संसार,
दिल में बस गई एक लड़की का प्यार।
सुबह की प्रार्थना में जब दिखती थी वो,
लगता था दिल जैसे कर रहा हो शो।
क्लास में आती तो सब शांत हो जाते,
मैं तो बस खिड़की से झांकते रह जाते।
कभी कॉपी में, कभी किताबों के बीच,
उसके नाम के अक्षर बनते थे खींच-खींच।
खेल के मैदान में जब वो बैडमिंटन खेलती,
हर शॉट पर लगता, जैसे बिजली चमकती।
मुझे भी लगा, चलो कुछ तो करूं,
पर बैडमिंटन के बजाय मैं रस्सी पर गिरूं!
उसके जन्मदिन पर सोचा गिफ्ट दूंगा,
पेंसिल खरीदी, फिर डर के वापस छुपा दूंगा।
दोस्तों ने कहा, “जाकर बोल दे यार!”
मैंने कहा, “पहले दिल को थोड़ा समझा ले सरकार!”
लंच टाइम में जब वो चुपके से हंसती,
मेरी थाली से दाल छलक-छलक गिरती।
पढ़ाई के समय उसके नोट्स मांगने गया,
पर हड़बड़ाहट में अपना नाम ही भूल गया।
फिर आया फेयरवेल का वो आखिरी दिन,
सोचा, आज तो कह दूंगा दिल की हर बिन।
पर जैसे ही देखा उसे मुस्कुराते हुए,
गला सूख गया, मैं चुप रह गया बस देखते हुए।
आज भी सोचता हूं, काश हिम्मत कर ली होती,
नवोदय की वो प्रेम कहानी पूरी कर दी होती।
पर इस अधूरे प्यार का है जो मजा,
वो किसी फिल्म से कम नहीं, ये तो कहना बना।
तो नवोदय का वो पहला और आखिरी प्यार,
यादों में है आज भी उसका वो व्यवहार।
सोचता हूं, अगर उसने "हां" कह भी दिया होता,
तो शायद मैं वहीं बेहोश पड़ा होता!
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